Thursday 31 August 2017

नाज सच्चे इश्‍क पर है, हुनर का दावा नहीं... मेरा इर्फाने-कलम सालक ही कोई पाएगा

बादलों से लेकर चांद पर अपने शब्‍दों  के दस्‍तखत करने वाली अमृता प्रीतम 31 अगस्‍त को ही जन्‍मी थीं और  आज ही यानि 31 अगस्‍त को मेरी बेटी का भी जन्‍म दिन है...शायद इसीलिए मुझे अब और भी प्रिय लगती हैं अमृता जी...

लीजिए मेरी प्रिय कवियत्री की 5 कविताओं को पढ़िए------

अमृता बेहद भावुक थीं, लेकिन उतनी ही खूबसूरती के साथ उन्हें अपनी भावनाओं और रिश्तों के बीच सामंजस्य बिठाना आता था। आजीवन उन्होंने साहिर से प्रेम किया, दो बच्चे कि मां बनी। साहिर कि मुहब्बत दिल में होने के कारण शादी- शुदा जीवन से बाहर निकलने का फैसला लिया और फिर साहिर ने भी उन्हें छोड़ दिया, लेकिन फिर भी वह सम्मान के साथ  उस रिश्ते से अलग हो गईं।जीवन के आखिरी समय में सच्चा प्यार उन्हें इमरोज के रूप में मिला। उनकी जीवन के उतर- चढाव को उनकी आत्मकथा के रूप में लिखा गया, खुशवंत सिंह के सुझाव पर उनके जीवनी को रशीदी टिकट नाम दिया गया।

1. रोजी

नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता हैाेें

सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है

तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोजी रख दे।

जो ख़ाली हँडिया भरता है
राँध-पकाकर अन्न परसकर
वही हाँडी उलटा रखता है

बची आँच पर हाथ सेकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और खुदा का शुक्र मनाता है।

रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुआँ इस उम्मीद पर निकलता है

जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है…

2. कुफ़्र

आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली

आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे

3. मुकाम

क़लम ने आज गीतों का क़ाफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क़ यह किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूँ
मेरे हाथ से हिज्र का काँटा निकाल दे

जिसने अँधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी

उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी…

4.चुप की साज़िश

रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।

चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।

5. आदि स्मृति

काया की हक़ीक़त से लेकर —
काया की आबरू तक मैं थी,
काया के हुस्न से लेकर —
काया के इश्क़ तक तू था।

यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख़लाक दिया।
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने ‘वह’ को पहचान लिया,
भय-मुक्त मैं की हस्ती
और भय-मुक्त तू की, ‘वह’ की

मनु की स्मृति
तो बहुत बाद की बात है…

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह
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