Thursday 20 March 2014

फिर मैंने....

एक सिरे पर बांधी चितवन
एक सिरे पर बांधा साज़
रस रस होकर बहता सा
सपनों तक घुलता गया देखो...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार


हवासों की किताबों में जो
फलसफे गढ़ दिये हैं उसने
उन्‍हें उधेड़ा फिर सींकर देखा
रास्‍तों की धूल पर उकेरा...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार

कुछ पिघलते शीशे सा
मेरे लफ़्जों पर जा बैठा
गहरे तल में डूबकर जो
लिपट गया है सायों से
आवाजों की गुमशुदगी में...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार
- अलकनंदा सिंह
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