Sunday 30 March 2014

हिस्‍सा... ?

बारिश की हर बूंद पर लिखा है
ज़मीं पर उसका कितना हिस्‍सा
कायनात का ये बंटवारा क्‍या
क्‍या सबके हिस्‍से लिख पाया है

कहीं जज्‍़बात परवान चढ़ाते
कहीं हकीक़तें फ़र्श दिखातीं
तब्‍दीली की रफ्तारों से झूलती
अपने हिस्‍से के हर लम्‍हे पर सांसें
घूंट उम्‍मीदों का सेती जातीं हैं

ये कैसा समय दरक रहा है
सब अपने अपने हिस्‍से में भी
रूहों का हिस्‍सा भूल रहे हैं,
घुलकर चलना, चलकर घुलना
बहकर रमते जाना यूं ही बस
बेहिस्‍से होकर हिस्‍सों में बंटना
रूह जाने कैसे कर पाती है
बेहिस्‍सा के हिस्‍सों में रहकर

बंटवारे का कोई सिफ़र नहीं होता
और सिफ़र की कोई जिंदगी नहीं
इन्‍हीं रूहों के आसपास हम-तुम
सिफ़र बनाते घूम रहे हैं

धरती पर अपने अपने हिस्‍से के
रूहों - अहसासों की भाप उड़ाकर
दौड़ रहे हैं, मचल रहे हैं...
हम किस हिस्‍से को तरस रहे हैं
अपने गुमानों से निकलें
आओ रूह बनकर घुल जायें फिर
धरती पर हिस्‍सों को ढूढ़ते 'मैं' और 'तुम'
हर हिस्‍से के 'हम' बन जायेंगे।

- अलकनंदा सिंह

Monday 24 March 2014

'मरा से राम'

भय लग रहा है-
          मुट्ठी से खिसकती रेत से
         विस्‍तृत होते झूठ व आडंबरों से
         सुलगते संबंधों से
          खोखले नीड़ों से

कांपता है मन- शरीर कि-
       सच्‍चाइयों की तहें उधड़कर
       नंगा कर रही हैं वे सारे झूठ
       जो नैतिकता की आड़ में
       घुटन बन गये

मात दे रहा है-
      समय के धुंआई ग्राफ को
      सभ्‍यता- आस्‍था का -
      विच्‍छिन्‍न होता आकाश
      तड़ तड़ झरता विश्‍वास
     
अपने ही मूल को-
      निश्‍चिंत हो करना होगा-
      बंधनों से मुक्‍त जीवन को
      वरना प्रेम...विचार...भावना...भी
      नाच उठेंगे काल-पिंजर से

आशाओं के द्वार चटकने से पूर्व-
        लेना होगा उस ...पावन
        ज्‍योतिपुंज का आश्रय
        धधक रहा है जो मेरे और तुम्‍हारे बीच
         बाट जोहता उस स्‍पर्श की..
         जिसने 'मरा से राम' को पैदा कर ...
         अस्‍पृश्‍य डाकू से बना दिया महर्षि।

- अलकनंदा सिंह

हदें

दफ्न हो गये सारे सपने
खुदमुख्‍़तारी से जीने के
होंठों पर उंगली रखने वाले
हमसाया ही निकलते हैं

जागने वाली शबों के रहगुज़र
दूर तक चले आये मेरे साथ
दीवानगी की इतनी बड़ी
कीमत चुकाई न हो किसी ने

साथ निभाने का वादा कब
बदला और दिल का सौदा हो गया
भंवर में पैर उतारा और
मंझधार का धोखा हो गया
- अलकनंदा सिंह
 

Thursday 20 March 2014

फिर मैंने....

एक सिरे पर बांधी चितवन
एक सिरे पर बांधा साज़
रस रस होकर बहता सा
सपनों तक घुलता गया देखो...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार


हवासों की किताबों में जो
फलसफे गढ़ दिये हैं उसने
उन्‍हें उधेड़ा फिर सींकर देखा
रास्‍तों की धूल पर उकेरा...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार

कुछ पिघलते शीशे सा
मेरे लफ़्जों पर जा बैठा
गहरे तल में डूबकर जो
लिपट गया है सायों से
आवाजों की गुमशुदगी में...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार
- अलकनंदा सिंह

Tuesday 11 March 2014

वो आख़िरी कुछ भी न था


Paintings by Theresa Paden



















वो ओस की आखिरी बूंद थी
वो लम्‍हों का ठहराव भी आखिरी था
कि फूल की आखिरी पंखुड़ी ने झड़ते हुए
जो कहा वो भी सूफियाना था
पल पल का हिसाब बखूबी रखती है कायनात
वो जो आखिरी दामन होता है ना
वो जो आखिरी सांस में घुलता है
वो जो तंतूरे सा झनझनाता है मन को
वो जो भूख में भी हंस लेता है
वो जो दर्द को पी जाता है बेसाख्‍़ता
वो आखिरी कुछ भी तो नहीं है बस
होती है शुरुआत... वहीं से शफ़क को जाने की

- अलकनंदा सिंह

लम्‍हा लम्‍हा सरकी रात

थके थके कदम चांदनी के
लम्‍हा लम्‍हा सरकी रात
बिसर गई वो बात, कहां बची
अब रिश्‍तों की गर्म सौगात

चिंदी चिंदी हुये पंख, फिर भी
कोटर में बैठे बच्‍चों से
कहती चिड़िया ना घबराना
कितनी ही बड़ी हो जाये बात

पलकें भारी होती हैं जब
ख़ुदगर्जी़ से लद लदकर
बिखर क्‍यों नहीं जाते वो हिस्‍से
जिनमें बस्‍ती हो जाती ख़ाक

- अलकनंदा सिंह

Saturday 1 March 2014

शुक्‍ल पक्ष की ओर..

हे सखा.. हे कृष्‍ण..
क्‍या सुन पाओगे.. तुम?
कि अमावस के जाते क्षणों में भी
मेरे शब्‍दों में गुंथे हुये हो तुम
होली के रंग में नहाये हैं भाव सारे
धीमे से सरक रहे.. उस पूर्णिमा की ओर
जहां जीवन मेरा रसरंग में डूब ,
पूरा का पूरा शुक्‍ल पक्ष हो गया है ।

हे ईश्.... आज धन्‍य हूं तुम्‍हें पाकर
कि शब्‍द छूमंतर हुये जाते हैं मेरे .....
पूर्णिमा का उदय अभी भी शेष है
देखो इस झंकृत से मन में..
पर मैं नहीं हुई हताश..सखा !
दूज का चाँद भी तो कम सुदंर
नहीं होता ... जानते हो ना...तुम ?

जीवन में झांक कर देखोगे
..तो निश्‍चित पाओगे कि कभी भी
अस्‍तित्‍व सीधा कहां होता है...
सबकुछ वर्तुलाकार है , फिर जीवन..
उससे भिन्‍न कैसे हुआ सखा..
तो फिर आज चलो ऐसा करें..
कुछ अंबर की बात करें...
कुछ धरती का साथ धरें...
कुछ तारों की गूंथें माला...
नित जीवन का सिंगार करें
अमावस से पूरनमासी की
निज यात्रा का संधान करें।।

- अलकनंदा सिंह
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