Wednesday 12 November 2014

षडयंत्र तो भुनते हैं..

उसके पैर बंधे थे, उसके हाथ बांध दिये गये थे,
सिर से पांव तक गहनों से ,
जैसे ठोक दिया गया हो कीला किसी पत्‍थर में
उसके तन को...नहीं, नहीं,
मन पर भी चिपका दिया गया था कीला
इसीलिए वह मौन थी हजारों वर्षों से,

आज जब समय को...उसकी आवाज सुनानी थी
कुछ नया करना था उत्‍तेजक सा...
दिखाना था उसके जीते-जागते होने का सबूत
इसीलिए अनेक राम आये, बन के उद्धारक उसके
दावा करते महान उद्धारक होने का...सो इसीलिए !

वह चुप थी किसी भी तरह बोलती ना थी,
उसके बिना बोले फिर....
उद्धारक होने का कौन देता लाइसेंस उनको,
सो उसके मौन का इलाज खोज लिया गया
बड़ा विध्‍वंसक था जो, उन्‍हीं की बुद्धि की तरह,

आग के बीच उस मौनमूर्ति को बिठाया,
बंधे हाथ, बंधे पैर और लंबे मौन के संग
वह...गुर्राई, आग के पास आते जाने पर ...
वो लेने लगी लंबी लंबी सांसें जोर से...
आंखें निकाल आग को डराने लगी
फूंक मार कर बुझाने लगी कभी...

पास पहुंचती आग, इससे पहले ही
वह जोर से चीखी...तेज आवाज के साथ
एक विस्‍फोट हुआ ,
अपनी ही आवाज को सुनने का विस्‍फोट...
मौन तो टूटा, मगर मौन ने ही उगल दिए
उद्धारकों के सभी षडयंत्र ,
उसे बंधनमुक्‍त कराने के स्‍वार्थ,
वो आग जो लगाई थी आजादी के नाम पर,
उद्धारकों के अपने चेहरे उसमें भुन रहे थे...
सच्‍चाई तप कर सोना बनती है मगर
षडयंत्र ....षडयंत्र तो भुनते हैं...स्‍याह होते हैं
इसीलिए दबे रहने दो स्‍त्री-स्‍वतंत्रता के शब्द
ये उखड़ेंगे तो स्‍याह होती तुम्‍हारी सूरतें
बहुत कुछ उगल देंगीं तुम्‍हारी सब हकीकतें।

 - अलकनंदा सिंह


Wednesday 1 October 2014

पाइपलाइन में रिसाव ...

सुबह सुबह खबर मिली है कि...
कभी शहर की तरक्‍की के लिए अंग्रेजों ने
बिछाई थी जो पाइपलाइन पानी की-
आज वो फटकर रिस रही है...
खबर ये भी मिली है कि-
पानी के रिसाव से फट रहे हैं ,
मकान-दुकान-पुराने किले और दरी-दरवाजे।

मगर इस खबर के संग संग ही...
मेरी यादों में रिस रहा है वो समय भी,
कि जब शहर के बीचोंबीच बिछी इन्‍हीं पाइपलाइनों में,
बहते हुए तैरती थीं खुश्‍बुऐं मोहल्‍ले की- गलियों की,
प्‍यार की-  मनुहार की , बनते - बिगड़ते रिश्‍तों की
भरते हुए पानी के संग होती थी बहसें, चुहलबाजियां...
विस्‍मृत न होने वाली तैरती थीं कितनी  स्‍मृतियां भी।

आज फटते हुए मकानों में
जो बन  गई हैं खाइयां गहरी सी ,
रिसती आ रही हैं उनमें से वो सभी यादें,
वो बातें कि कैसे अधेड़ बाबा से ब्‍याही गई
दस साल की दादी, और दादी के
मुंह से ही सुनना उन्‍हीं की गौने की बातें,
गोदभराई, बच्‍चों की पैदाइश तक...सबकुछ।

रिसते पानी के संग वो सब भी रिस रहा है...
इन फटते पुराने मकानों से- बनती खाइयों से,
जर्जर होती यादों में आज फिर से 
वो ध्‍वनियां गूंज रही हैं कि कैसे-
गली-नुक्‍कड़ की दुकान के फड़ों पर बैठकर
उगाये जाते थे ठट्ठे कतई बेलौस होकर,
कभी गालों को दुखा देते थे जो... अपने इन्‍हीं ठट्ठों से,
आज वो सब यकायक मौन क्‍यों हैं,
चकाचौंध की धुंध चीर वो क्‍यों नहीं आगे आते...।

मन करता है धकेल दूं
फटी पाइपलाइन से परे, उन-
राज-मिस्‍त्रियों को... जो मरम्‍मत में जुटे हैं,
कह दूं कि रिसने दो इन्‍हें,
ये जर्जर हैं... बूढ़ी हैं...
मगर जीवित हैं... अब भी हमारी सांसों में,
सालों से बह रही हैं हमारा जीवन बनकर,
अरे, मिस्‍त्रियों !  ये पाइपलाइन सिर्फ पानी की नहीं है..
रिश्‍तों की, खुश्‍बू की, गलियों की, ठट्ठों की
न जाने कितनी पाइपलाइन हैं...वे भी सब फट रही हैं।

आज वो सब रिस रहा है ...इनके सहारे,
कि हम भूल गये हैं मन में झांकना, और
झांककर देखना कि आखिरी बार कब...
कब दबाये थे मां के सूखे ठूंठ होते पैर,
जिनकी बिवांइयों से झांक रही हैं,
पानी के रिसाव से फट चुके मकानों की पुरानी तस्‍वीर,
तस्‍वीरों में बहते रिश्‍तों का नमक-चीनी सब ।

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 2 September 2014

अशब्‍दिता

नि:शब्‍द होना किसी का,
अशब्‍द होना तो नहीं होता
और अशब्‍द होते जाना,
प्रेमविहीन होते जाने से
बहुत अलग होता है।

मन की तरंगों पर डोलते
अनेक शब्‍द,
ढूढ़ते हैं किनारे...पर...!
कोई शब्‍द इन किनारों पर
अपना लंगर नहीं डालता

और प्रेम...स्‍वयं प्रेमविहीन सा
हर बार  अकड़कर खड़ा होता जाता है,
उस किनारे तक पहुंचने के लिए
जहां मैं और तुम...
प्रेमविहीन, रंगहीन, स्‍वादहीन
होकर, विलीन हो जायें,
उस आग में... जहां सभी शब्‍द
जल जायें, भाप हो जायें, उड़ जायें
हमेशा हमेशा तक अशब्‍दिता पर
प्रेम बनकर जम जाने के लिए।
- अलकनंदा सिंह

Saturday 30 August 2014

छूट गये दर्ज़ होने से

हर्फ़ ब हर्फ़ जिंदगी
उतरती गई पन्‍नों पर
और पन्‍नों के कोनों में दर्ज
होती गईं हमारी खुश्‍बुएं
हमारे झगड़े, हमारी मोहब्‍बतें,
हमारा सूनापन, हमारे जज्‍़बात,
हमारा गुस्‍सा, वो सबकुछ
जो हमारे पास था
पन्‍नों में दर्ज़ होता गया, होता रहा लगातार,
और इस दर्ज़ होते सफ़र में
हम ही छूट गये दर्ज़ होने से
- अलकनंदा सिंह

Saturday 26 July 2014

किसके हस्‍ताक्षर हैं ये

वो आवाजें जो गूंजती हैं रातों को
बिछा देती हैं कुछ करवटें अपने अहं की
वो आंखें जो देती हैं सूरतों पर निशान
वो  प्रेम के ही अस्‍तित्‍व की चिता बुनती हैं

हिम्‍मतें भी जोर से उछलती हैं अंतर्मन में
ढूढ़ती अपने ही अस्‍तित्‍व को
देखती रहती हैं राह बुढ़ापे की
कि शायद तब तक तो ठंडा हो जायेगा
तुम्‍हारे उस अप्रेम प्रेम का दावा
जो अकाल में ही चबा गया है प्रेम को,
अस्‍तित्‍व को, धर्म को , विश्‍वास को
तुम्‍हारे विश्‍वास को अपनी श्रद्धा का
 आचमन कहां दे पाई मैं देखो तो...

गर्व से जब तुम्‍हारा सीना फूलता है
तब मेरी सांसें अंतिम यात्रा का,
करती हैं इंतजार ...क्‍योंकि,
प्रेम से अहं पर
विजय पाने की कला
अब तक नहीं सीखी जा सकी

 भ्रम था तुम्‍हारी हथेलियों में आने का
तुम्‍हारे ह्रदय में समाते चले जाने का
या थी वो प्रेम की मृगतृष्‍णा मेरी
कि मैं नहीं दे पाई तुम्‍हें
अपने प्रेम का प्रमाणपत्र
जिसपर तुम करते अपने हस्‍ताक्षर

मगर देखो कोरे कागज में ही दर्ज़ होती हैं
प्रेम की  अनेक गाथायें-निर्बलतायें
हस्‍ताक्षरविहीन कागज तुम्‍हारे घर की ओर
उड़ा दिया है मैंने कबका....
-अलकनंदा सिंह

Wednesday 23 July 2014

उन्‍मुक्‍त वसन




उन्‍मुक्‍त वसन में प्रेम गहन,
कुछ कम मिलता है
देह धवल में काला मन
अक्‍सर दिखता है

जो दिखे नहीं वही बीज
अंकुर दे पाता है
तन जल जाता पर मन को
कौन जला पाता है

अभी और कितनी यात्रायें हमको
करनी हैं यूं ही शब्‍दों पर चलकर
अंकुर से पहले जो जड़ था
चैतन्‍य उसे अब करना है
उर में बैठे श्‍वासों को
निज मान के रस से रचकर
बस कैसे भी अविरल
सिंचित करते रहना है

 -    अलकनंदा सिंह

Sunday 13 July 2014

तुम यहीं हो...

ये आहटें,ये खुश्‍बुएं,ये हवाओं का थम जाना,
बता रहा  है कि तुम यहीं हो सखा,
मेरे आसपास...नहीं नहीं...
मेरे नहीं मेरी आत्‍मा के पास
मन के बंधन से मुक्‍त
तन के बंधन भी कब के हुए विलुप्‍त
....छंद दर छंद पर तुम्‍हारी सीख कि
धैर्य से जीता जा सकता है सबकुछ
रखती हूं धैर्य भी पर....
जीवन की निष्‍प्राणता से तनिक
चिंतायें उभर आती हैं कि
हे सखा तुमसे  मिलने के लिए
क्‍या....शरीर त्‍यागना जरूरी है

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 8 July 2014

अभिमन्‍यु का शर-संधान

देखो, हर पड़ाव पर अभिमन्‍यु
किये खड़ा है शर-संधान
व्‍यूह में धंसे अहंकार को
करने को ध्‍वस्‍त,हो विकल-निरंतर
इच्‍छाओं के हर द्वार पर खड़े
अहंकार के जयद्रथी-महारथी
अपने अपने आक्रमण से
छलनी कर चुके हैं मानुष तन
वो नहीं देख पाते हैं घायल मन
फिर भी अभिमन्‍यु अब तक लड़ रहा है
सदियों से लगातार अविराम
मगर व्‍यूह वज्र हो गया हो जैसे
टूटता नहीं, वो फिर फिर बनता है
और घना, और बड़ा, और कठिन
अभिमान का द्वार तोड़ने को
क्‍या फिर कल्‍कि को आना होगा
नहीं... नहीं... नहीं...नहीं...
हमें ही अभिमन्‍यु के शर पर
बैठ अपना अहं स्‍वयं वेध कर जाना होगा।

- अलकनंदा सिंह

Thursday 3 July 2014

मुक्‍ति का पथ

मुझे जीतना है अपना मन
जीतनी है तुम्‍हारी ईर्ष्‍या और जलन
मैं हूं अहसास की वो नदी जिस पर
मुझे बहकर उकेरने हैं वो शब्‍द
जिनमें खुद बहती जाऊं मैं

वो शब्‍द, जो पिंजरों से मुक्‍त हों
वो शब्‍द, जो बोल सकें अपनी बात
वो शब्‍द, जो खोल सकें अपनी सांसें
वो शब्‍द, जो बता सकें कि...
क्‍यों होती है तुम्‍हें ईर्ष्‍या मुझसे
क्‍यों बांधते हो तुम मुझ पै बंधन
क्‍यों करते रहते हो चारदीवारियों का निर्माण
मन की, तन की, धन की और...और...,

चलो छोड़ो जाने भी दो...
सदियां बीत गईं बहस वहीं है खड़ी ये
मेरी मुक्‍ति का पथ
मेरे शब्‍दों की मुक्‍ति का पथ
मेरे अस्‍तित्‍व की मुक्‍ति का पथ ढूढ़ते हुये,
कुछ पाया कुछ खोया भी मैंने
पाया अपनी दृढ़ता को
अपने शब्‍दों की भाषा को

खोया है तुम्‍हारा प्रेम-निश्‍छल
जो आलिंगन को होता था लालायित
अब इसी आलिंगन के बीच आ जाते हैं शब्‍द
चुपके से और तुम हो जाते हो
निष्‍क्रिय आक्रामक भावुक अस्‍पष्‍ट

अब समझे कि स्‍वयं को स्‍वयं से ही
दूर जाते हुए देखना कैसा लगता है
जैसे आत्‍मा से कोई तुम्‍हें कर रहा हो अलग
मैंने तो सदियों से झेली है ये कटन
ये ताड़ना ये चुभन ये गलन

मुझमें बहते हैं शब्‍द मगर जकड़े हुए
वे सहलाकर कहते हैं मुझे कि -
सखी, समय की बदली चाल को तुम 
अच्‍छी तरह समझ लेना
कहीं तुम अस्‍थिर ना होना
कहीं तुम विचलित ना होना
कहीं तुम हारो नहीं कहीं तुम टूटो नहीं
कि कहीं तुम ना बन जाओ अप्रेम
कि कहीं ना बिखर जाए अस्‍तित्‍व तुम्‍हारा

तुम बहती रहो यूं ही प्रेम का भंवर बनाकर
डूब जाये जिसमें वो जलन, ईर्ष्‍या और घृणा
भंवर तोड़ दे वो चारदीवारी भी,और
तैर कर किनारे बैठा प्रेम
फिर करे कोई नई रचना
फिर प्रेम से प्रेम को पैदा करे ,
फिर शब्‍दों में बहे प्रेम, मन में उगे प्रेम

- अलकनंदा सिंह



Sunday 22 June 2014

डिसेक्‍शन

आदतों के अंधेरे में
आदमी इस तरह काट रहा है जीवन
ज्‍यों...-ज्‍यों चलता है लगता है कि
वह कोई स्‍लीपवॉकर्स का बिंब हो
सोये हुये चल रहा हो...
ये बिंब अहसास ही नहीं होने देते
कि हम क्‍या कर रहे हैं
सही अौर  गलत के बीच,फिर भी
सत्‍य की आग सुलगती - चटकती रहती है
और लेने को बाध्‍य करती है
कई असंभवकारी निर्णय ऐसे...
मनसा वाचा कर्मणा तीनों का ही डिसेक्‍शन
विच्‍छेदन अब जरूरी है इनका
ताकि जमा हुई घुटन एक लक्ष्‍य दिखा सके
अंधेरों को कुहासे भरी ताप का दर्पण चाहिए
सचमुच आदमी को, हमको, अपने
अंदर भी तो झांकना चाहिए
इस अंधयात्रा का कोई पड़ाव तो होगा
जो बतायेगा कि किस माइलस्‍टोन
पर रुकना होगा इस आदमी को...
-अलकनंदा सिंह

Monday 16 June 2014

हे स्‍त्री ...!

 [1]
अपनी छाती को वे कूट रहे हैं और
अनर्गल चीख रहे हैं, करते कोलाहल वे...
अपने भीतर नहीं झांकते कभी जो,
वे भी अब दे  रहे हैं सीख कि-सुनो स्‍त्री !
भीतर बैठो, कुछ मत बोलो, मुंह सींकर तुम
इज्‍़जत के दोनों पलड़ों में तुम ही तुम हो
इधर झुके या उधर उठे, तुम ही दोषी हो
आंखें-कपड़े-चाल-ढाल और तुम्‍हारे मीठे बोल
सब पर कब्‍ज़ा है हमारा कि-
तुम कैसे हंसती हो, क्‍यों हंसती हो ,
कब तक नहीं मानोगी तुम ,
अब घर से नहीं झांकोगी तुम,
तुमने अपने लिए सोच कर
बड़ा अपराध किया है...स्‍त्री ! 
बताओ हमें तुम हो क्‍या, मांसपिंड और मज्‍जा की-
कुछ आकृतियां बस...कुछ इतना ही ना,
अधिकारों की बातों को तुम, सरकारों तक ही रहने दो
जो स्‍वतंत्र हैं वो ढीठ हैं, स्‍त्री नहीं हैं वो कदापि,
पाशों की भाषा कैसे भूल गईं तुम
चालक नहीं चालित बनी रहो तुम
कुछ बोलोगी तो निर्लज्‍ज तुम्‍हीं कहलाओगी
हर रोज खेत और चौराहों पर
निर्वस्‍त्र घुमाई जाओगी...सो,
दुष्‍कर्मों की वेदी पर जीवित ही चढ़ाई जाओगी
                         
 [2]

पर ये क्‍या...जिसको देते रहे अबतक सीख्‍ा,
वही आज ललकार आ रही हैं ...कानों में लावा डाल रही हैं...
पुरुष और स्‍त्री के बीच अस्‍तित्‍वों के युद्ध
इन चलते युद्धों के बीच
सजी वेदियों में अग्‍नि ने,स्‍त्री के संग बैठ
अपना भी ताप वाष्‍पित कर उड़ा दिया है

और...और...और....अब देखो वो लपटें जो
छोड़ीं थीं तुमने विकराल , उनमें झुलस झुलसकर ही
स्‍त्री की अग्‍नि ने, अपने उर की ज्‍वाला को
बना लिया है तुम पर हंसने का...
अपने स्‍व को जगा, तुम्‍हें पछाड़ने का...
एक अमोघ अस्‍त्र ताकि...ताकि...

तुम जलते रहो अपने अहं की आग में निरंतर
दूषित करते हो पौरुष को तुम,
आधी सृष्‍टि को फिर तुम कैसे पहचानोगे
तुम्‍हारे दूषित मन की--अहंकार की शुद्धि में
अभी और समय लगने वाला है...

देखें तबतक कितनी बार चढ़ेगी स्‍त्री
अपनी ही वेदी पर अपनों के ही हाथों...
फिर भी वे होकर निर्लज्‍ज कहेंगे तुमको कि-
हे स्‍त्री ! तुम ही हो कल्‍याणी...इस जीवन की
-अलकनंदा सिंह

Sunday 20 April 2014

राशन पुण्‍य कमा रहा है

अगली कतार में खड़ा वो बच्‍चा
आखिरी ग्राहक बना रह गया
उसके हिस्‍से का राशन तो पहले ही
मंदिर के भंडारे में चढ़ गया...

कह दिया मां से जाकर उसने
बांध ले आज पेट से जोर की पट्टी
गेहूं चावल चीनी तेल में उसका हिस्‍सा
भाग्‍यवान हो गया है ... क्‍योंकि-वो
मंदिर के भंडारे में चढ़ गया है...

भूखा रहकर भी खुश है वो
कि उसका राशन पुण्‍य कमा रहा
भंडारे की जूठन से आती खुश्‍बू से
मां-बेटे दोनों भर लेंगे अपना पेट
ये जूठन नहीं उसका अपना है राशन
भक्‍तों के कमाये पुण्‍यों में भीगा
मंदिर के पिछवाड़े की जूठन से तृप्‍त
जो कि मंदिर के भंडारे में चढ़ गया है...

चल रहा अविराम अनवरत ऐसे ही
सदियों से राशन की कतारों का खेला
बनाता जा रहा अनेक दासों का रेला
अब दुकानों पर राशन नहीं ,पुण्‍य बिक रहे
पत्‍थर को लगते भोग और दास रो रहे

जूठन में आनंद, दुत्‍कारे जाने का परमानंद
उसकी खीसों में रम गया है ऐसे... जैसे कि
मंदिर से फेंका गया पकापकाया पुण्‍य
 उसके पुरखों तक को तृप्‍त कर रहा हो जैसे-
और क्‍यों रोये चीखे खिसियाये अपने पुरखों की भांति
आत्‍मसम्‍मान से  भूख नहीं मिटती
एक आत्‍मसम्‍मान ही तो है, जिसे कांख में दबाकर,
देख रहा है वह कर रहा अट्टहास...
देखो जिंदा मरते गये पुरखो तुम भी कि-
तुम्‍हारा हिस्‍से का राशन भ्‍ाी कर रहा पत्‍थरों पर  शासन,
खुश हो जाओ, तृप्‍त हो जाओ...कि 
वह मंदिर में चढ़कर पुण्‍य कमा रहा है।

- अलकनंदा सिंह

होली के रंग में दीवाली

रंग भी उधार के..उमंग भी उधार की...
होली भी उधार की, खुशी भी उधार की...
उतरनों में लिपटी लड़की
हतप्रभ सी खड़ी,
देख रही थी..तमाशा  आज कि-
उस पर क्‍यों लुटाई जा रही है
ममता भी उधार की...

कोई गाल छूता रंग से
कोई लगा रहा गुलाल तन पै
गोद में बिठाकर कमबख्‍़तों ने
होली के बहाने उसे...?
तोल लिया नज़रों से...
लगा लिया मोल धन से...

ऐसे थे रंग बिखरे समाजसेवियों के
अनाथालय की कृपापात्रों पर
खेलकर होली बच्‍चियों से , कर लिया
इंतज़ाम अपनी दीवाली मनाने का उन्‍होंने।

- अलकनंदा सिंह

Monday 14 April 2014

अतीत

वे सबदिन पता नहीं... कहां चले गये?
कितने ही प्रिय नाम ,चेहरे और कदम
और पलछिन अपने साथ ले गये
कौन ला पाया आजतक उन्‍हें वापस
फिर भी...
अतीत  तो अतीत  होता है
वर्तमान बनना उसे नहीं आता
वह तो बस जमा कर सकता है
अपनी उन सब स्‍मृतियों को
जो उसे अहसास दिलातीं हैं
होने का..रचने का..बसने का
और धीमे से हर शय में घुलते जाने का


- अलकनंदा सिंह

Sunday 30 March 2014

हिस्‍सा... ?

बारिश की हर बूंद पर लिखा है
ज़मीं पर उसका कितना हिस्‍सा
कायनात का ये बंटवारा क्‍या
क्‍या सबके हिस्‍से लिख पाया है

कहीं जज्‍़बात परवान चढ़ाते
कहीं हकीक़तें फ़र्श दिखातीं
तब्‍दीली की रफ्तारों से झूलती
अपने हिस्‍से के हर लम्‍हे पर सांसें
घूंट उम्‍मीदों का सेती जातीं हैं

ये कैसा समय दरक रहा है
सब अपने अपने हिस्‍से में भी
रूहों का हिस्‍सा भूल रहे हैं,
घुलकर चलना, चलकर घुलना
बहकर रमते जाना यूं ही बस
बेहिस्‍से होकर हिस्‍सों में बंटना
रूह जाने कैसे कर पाती है
बेहिस्‍सा के हिस्‍सों में रहकर

बंटवारे का कोई सिफ़र नहीं होता
और सिफ़र की कोई जिंदगी नहीं
इन्‍हीं रूहों के आसपास हम-तुम
सिफ़र बनाते घूम रहे हैं

धरती पर अपने अपने हिस्‍से के
रूहों - अहसासों की भाप उड़ाकर
दौड़ रहे हैं, मचल रहे हैं...
हम किस हिस्‍से को तरस रहे हैं
अपने गुमानों से निकलें
आओ रूह बनकर घुल जायें फिर
धरती पर हिस्‍सों को ढूढ़ते 'मैं' और 'तुम'
हर हिस्‍से के 'हम' बन जायेंगे।

- अलकनंदा सिंह

Monday 24 March 2014

'मरा से राम'

भय लग रहा है-
          मुट्ठी से खिसकती रेत से
         विस्‍तृत होते झूठ व आडंबरों से
         सुलगते संबंधों से
          खोखले नीड़ों से

कांपता है मन- शरीर कि-
       सच्‍चाइयों की तहें उधड़कर
       नंगा कर रही हैं वे सारे झूठ
       जो नैतिकता की आड़ में
       घुटन बन गये

मात दे रहा है-
      समय के धुंआई ग्राफ को
      सभ्‍यता- आस्‍था का -
      विच्‍छिन्‍न होता आकाश
      तड़ तड़ झरता विश्‍वास
     
अपने ही मूल को-
      निश्‍चिंत हो करना होगा-
      बंधनों से मुक्‍त जीवन को
      वरना प्रेम...विचार...भावना...भी
      नाच उठेंगे काल-पिंजर से

आशाओं के द्वार चटकने से पूर्व-
        लेना होगा उस ...पावन
        ज्‍योतिपुंज का आश्रय
        धधक रहा है जो मेरे और तुम्‍हारे बीच
         बाट जोहता उस स्‍पर्श की..
         जिसने 'मरा से राम' को पैदा कर ...
         अस्‍पृश्‍य डाकू से बना दिया महर्षि।

- अलकनंदा सिंह

हदें

दफ्न हो गये सारे सपने
खुदमुख्‍़तारी से जीने के
होंठों पर उंगली रखने वाले
हमसाया ही निकलते हैं

जागने वाली शबों के रहगुज़र
दूर तक चले आये मेरे साथ
दीवानगी की इतनी बड़ी
कीमत चुकाई न हो किसी ने

साथ निभाने का वादा कब
बदला और दिल का सौदा हो गया
भंवर में पैर उतारा और
मंझधार का धोखा हो गया
- अलकनंदा सिंह
 

Thursday 20 March 2014

फिर मैंने....

एक सिरे पर बांधी चितवन
एक सिरे पर बांधा साज़
रस रस होकर बहता सा
सपनों तक घुलता गया देखो...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार


हवासों की किताबों में जो
फलसफे गढ़ दिये हैं उसने
उन्‍हें उधेड़ा फिर सींकर देखा
रास्‍तों की धूल पर उकेरा...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार

कुछ पिघलते शीशे सा
मेरे लफ़्जों पर जा बैठा
गहरे तल में डूबकर जो
लिपट गया है सायों से
आवाजों की गुमशुदगी में...
फिर मैंने,
कुछ इस तरह से बोया प्‍यार
- अलकनंदा सिंह

Tuesday 11 March 2014

वो आख़िरी कुछ भी न था


Paintings by Theresa Paden



















वो ओस की आखिरी बूंद थी
वो लम्‍हों का ठहराव भी आखिरी था
कि फूल की आखिरी पंखुड़ी ने झड़ते हुए
जो कहा वो भी सूफियाना था
पल पल का हिसाब बखूबी रखती है कायनात
वो जो आखिरी दामन होता है ना
वो जो आखिरी सांस में घुलता है
वो जो तंतूरे सा झनझनाता है मन को
वो जो भूख में भी हंस लेता है
वो जो दर्द को पी जाता है बेसाख्‍़ता
वो आखिरी कुछ भी तो नहीं है बस
होती है शुरुआत... वहीं से शफ़क को जाने की

- अलकनंदा सिंह

लम्‍हा लम्‍हा सरकी रात

थके थके कदम चांदनी के
लम्‍हा लम्‍हा सरकी रात
बिसर गई वो बात, कहां बची
अब रिश्‍तों की गर्म सौगात

चिंदी चिंदी हुये पंख, फिर भी
कोटर में बैठे बच्‍चों से
कहती चिड़िया ना घबराना
कितनी ही बड़ी हो जाये बात

पलकें भारी होती हैं जब
ख़ुदगर्जी़ से लद लदकर
बिखर क्‍यों नहीं जाते वो हिस्‍से
जिनमें बस्‍ती हो जाती ख़ाक

- अलकनंदा सिंह

Saturday 1 March 2014

शुक्‍ल पक्ष की ओर..

हे सखा.. हे कृष्‍ण..
क्‍या सुन पाओगे.. तुम?
कि अमावस के जाते क्षणों में भी
मेरे शब्‍दों में गुंथे हुये हो तुम
होली के रंग में नहाये हैं भाव सारे
धीमे से सरक रहे.. उस पूर्णिमा की ओर
जहां जीवन मेरा रसरंग में डूब ,
पूरा का पूरा शुक्‍ल पक्ष हो गया है ।

हे ईश्.... आज धन्‍य हूं तुम्‍हें पाकर
कि शब्‍द छूमंतर हुये जाते हैं मेरे .....
पूर्णिमा का उदय अभी भी शेष है
देखो इस झंकृत से मन में..
पर मैं नहीं हुई हताश..सखा !
दूज का चाँद भी तो कम सुदंर
नहीं होता ... जानते हो ना...तुम ?

जीवन में झांक कर देखोगे
..तो निश्‍चित पाओगे कि कभी भी
अस्‍तित्‍व सीधा कहां होता है...
सबकुछ वर्तुलाकार है , फिर जीवन..
उससे भिन्‍न कैसे हुआ सखा..
तो फिर आज चलो ऐसा करें..
कुछ अंबर की बात करें...
कुछ धरती का साथ धरें...
कुछ तारों की गूंथें माला...
नित जीवन का सिंगार करें
अमावस से पूरनमासी की
निज यात्रा का संधान करें।।

- अलकनंदा सिंह

Wednesday 26 February 2014

अवाक्.. पृथ्‍वी !

अवाक्.. पृथ्‍वी !
तुमने अवाक् कर दिया
पता नहीं पांव के नीचे से
ज़मीन कहां गई
जिस ज़मीन पर पड़ते हैं पांव
वही खिसक जाती है आगे
और आगे की ओर
खोने का यह कौन सा क्रम है
जिसे 'मुझसे' इतना प्रेम है
..............................................





दरवाजे...खिड़कियों पर...मकड़ा
विषैला मकड़ा
जाल फैलाकर
मेरे उस चित्र को
ढके दे रहा है,जो
बना रहा था ज़िंदगी किसी की
........................................


- अलकनंदा सिंह

Friday 21 February 2014

याद आता अम्‍मा का गांव...

चीं चीं चीं चीं चिउ चिउ जब करती है गिलगिलिया
धड़कन के हर स्‍पंदन पर याद आता अम्‍मा का गांव

गर्मी की छुट्टी और तपती थी दोपहर जब 
इमर्तबान में..सिक्‍कों को जमाती थी अम्‍मा
कटोरा अनाज में लैमचूस का मिलना
जवाखार की पुड़िया च्‍च्‍च्‍च्‍चट करते करते
एक आंख का दबकर समदर्शी हो जाना
बम्‍बे की पटरी से छलांगों को नापते
आज बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

पुराने घेरा में सक्‍कन दादी की सूरत
और पाकड़ का वो दरख्‍त़ जिसकी
हर शाख में छप गये थे हमारे पांव
झरबेरी के बेर, करौंदे,चकोतरा के साये, 
थे वहीं पर हमारी उंगलियों की राह तकते
ऐसे खट्टे मीठे ... जैसे हमारे रिश्‍ते
और कसैले भी बिल्‍कुल बदलते चेहरों से,
पत्‍त्‍ेा पर रखी कुल्‍फी का एकएक गोला
आज जब भी अटकता है गले में
तो गलते संबंधों में तिरता हमको आज
बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

गर्मी की छुट्टी के जब दिन गिनते थे हम
भूसे में दबाकर जतन से रखी गई ,
बर्फ की सिल्‍लियों पर.. बूढ़ी अम्‍मा का
तब गुस्‍सा और प्‍यार जमा होता था
फालसे के रस में हम डुबोते थे अपने अरमां
मशीनों में घिसे हैं हम या.. हमारा दिल भी
पैना हो गया इतना कि, चुभती यादों में भी
आज बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

मेंड़ों पर हांफती पुश्‍तैनी दुश्‍मनियों ने
पड़ोस से चलते चलते हौले से
कब घरों में....रिश्‍तों में डाल लिए हैं डेरे
तिल-गुड़ से भी ये अब कब गरमायेंगे
खून जमाते अहसासों और अपनों को जब
तिलतिल जड़ होते देखती हूं तब...
अम्‍मा की झुर्रियों में झांकते बचपनों से,
आज बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

- अलकनंदा सिंह

Thursday 23 January 2014

एक सा नाता ...मेरा और उसका ?

रुई के फाहों से हैं.. फिर भी चुभते हैं ,
संस्‍कारों के वे सारे दांव जो बचपन में
मां ने अपने दूध से छानकर--
छांटकर खून में पिरो दिये थे
बेटे और बेटी दोनों में ही तो बराबर
फिर...फिर आज ये क्‍या हो गया..

कि.....
बालपन में गूंथी गई सारी
संवेदना ही ढहा दी गईं आज, जिन्‍होंने
बदल दीं वो संभावनायें भी
उसकी एक लंबी..अंतहीन चीख में..देखो !

कि.....
थरथराई और जड़ होकर हुईं विलीन सभी
भावनायें..आकांक्षायें वो उठते ज्‍वार सी
मां के दूध पर आज कोयले से लिख रही हैं
कि आदम के दिये इस नये पाठ में
हव्‍वा को हासिल हुआ बस..और..बस..
बलत्‍कृत हो खुद के मिटते जाने का दर्द

कि....
अब सड़क पर चलते हुये हर क्षण
उड़ी रहती है नींद उसकी
और बिस्‍तर ....पर...भी ?
बिस्‍तर पर सांप की तरह रेंग कर
बन जाती है फिर वही सड़क मन पर
कि जहां..
टपकती लारों से लथपथाया था शरीर
पीछा करती आंखें.. टटोलते हाथ..हब्‍शी मन..
उफ ...वो सब...मंजर !

कि.....
देखो..आज उनसे बचता हुआ
उस बलत्‍कृत के तन से गुजर कर
मेरे मन तक पहुंचा वो..
फिर पारे सा रिसता हुआ दर्द
कि स्‍वाभिमानी सांसों की वो अकड़न..
वो पीड़ा...वो लड़ाई...वो जगहंसाई...
दुत्‍कारने में पारंगत वो रहनुमाई

कि.....
अपने बूते जीने का.. हंसने का..
सफल होने का.. हौसला पाले वो
गिरती.. फिर उठती, रिसते अनुभवों से
भरा, उसका चेहरा-उसके आंसू-
क्‍यों मेरे भी पोर पोर में उतर रहे हैं
उसकी चीख और मेरी आवाज अबतक
अरे ! एक सी क्‍यों हुये जा रही है

कि .....
वेदना उसकी मैं क्‍यों झेल रही हूं
वह दृश्‍य होकर.. अदृश्‍य रूह सी
क्‍यों मुझमें ही गलती जा रही है,
हर चौथी चार-दीवारी से निकलकर
उसकी वेदना का निकास..आखिर..
क्‍यों मुझ तक ही आता है
घुटनों में दबे उसके और मेरे अस्‍तित्‍व का
ये एक सा कैसा नाता है।
- अलकनंदा सिंह

Sunday 19 January 2014

हम गौरैया..

साफ आकाश, साफ दिन
साफ घर की खिड़कियां
और इस बीच
लटकता वह जर्जर
तेजी से डोलता घोंसला
गौरैया का...
तस्‍वीर है यह उस संघर्ष की
जिसमें-
रात दिन जी रहे हैं हम
बचाकर सांसें,आत्‍मा,प्रेम
और स्‍वाभिमान भी
कितनी कठिनाई से,
उस घोंसले वाली गौरैया की भांति
- अलकनंदा सिंह

Sunday 5 January 2014

शून्‍य एक बुनें चलो

वो पल कितने भावुक और
कितने निष्‍ठुर भी थे देखो-
कि मैंने तुमको ईश्‍वर माना
इसको सच मत होने देना
सखा कहा है सखा रहो तुम
ईश्‍वर होकर बैठ ना जाना

शायद तुमको पता नहीं है
ईश्‍वर के खाते में तो
निष्‍ठुरता का ही धन जमा है
पर तुम तो मेरे सखा हुये हो
तुम्‍हारे कांधों पर ही तो है सवार
मेरा मान भी  और अपमान भी 

ये जो सब तुम देख रहे हो
लालच, इच्‍छायें, मन का भारी होना
क्‍या इन्हें तुम सुन भी रहे हो
सुनकर भी तुम मौन ना रहना
कुछ मेरे अवगुन तुम भी गुन लेना
तब शब्‍दों के ये सप्‍त समुंदर
तुमको अवगुन से पार करायेंगे

सखावृष्‍टि से हम दोनों ही तब
जीवन का,  शून्‍य एक बुन पायेंगे
चलो सखा, अब बुनें ऐसा शून्‍य एक
कि साकार हो जायें जहां.. मेरे और
तुम्‍हारे बीच घट रहे सारे ही भाव
न सखा रहे ना ईश जहां, बस जाये एक शून्‍य..
संज्ञा शून्‍य..भाव शून्‍य..तुम शून्‍य..मैं शून्‍य


- अलकनंदा सिंह



Friday 3 January 2014

वह जो आज अदृश्‍य हो गई

                  (1)

वह आत्‍मा...ही तो है अकेली जो !
निराकार..निर्लिप्‍त भाव से ही,
प्रेम का अस्‍तित्‍व बताने को -
अपने विशाल अदृश्‍य शून्‍य में...
प्रवाहित करती रहती है आकार,

निपट अकेली पड़ गई आज वो.. 
जिसने स्‍वयं को करके विलीन,
निराकार से आकारों में ढली पर ..अब..
अब ढूंढ़ रही है अपना वो दबा हुआ छोर,
जो थमा दिया था देह को.. स्‍वयं कि-
हो कर निश्‍चिंत  अब जाओ..और,
दे दो प्रेम को, उसका विराट स्‍वरूप

---पर ये षडयंत्र रचा प्रकृति ने
कि- प्रेम का सारा श्रेय..
देह अकेली ही पा गई ,
वही व्‍यक्‍त करती गई सब संप्रेषण प्रेम के-
ये देखकर --कोने में धकेली, ठगी रह गई...आत्‍मा,
और आज...
देख अपने शून्‍य का विलाप
देख देह का निर्लज्‍ज प्रलाप कि-
निर्भय हो देह ने थामा है असत्‍य 
और उसी असत्‍य के संग ...
एक छोर से.. प्रेम की पवित्रता को-
हौले हौले रौंदकर आगे चलती रही देह
गढ़ती रही प्रेम की नई नई परिभाषायें...
                     (2)

आज के प्रेम की नई भाषा..है ये कि-
जहां और जब  दिखती है.. देह,
तो  दिखता है..प्रेम भी वहीं पर
मगर इसकी आत्‍मा..हुई विलीन?
दिखाकर आज के प्रेम का नया स्‍वरूप
वह वाष्‍पित हो कबकी उड़ गई कहीं
आत्‍मविहीन हो गया प्रेम और..
ऐसे ही निष्‍प्राण प्रेम से... जो उग रहा है..
वह तप्‍त है देह के अभिमान से..आज

तभी तो.....
जल रहा है जब सृष्‍टि का आधार ही
तब..प्रेम बिन जीवन कैसा..ये
वो हुआ अब आत्‍मविहीन, तो फिर प्रेम कैसा ..
फिर इसे देह में प्रवाहित करने को 
कौन साधेगा संधान, भागीरथ अब कौन बने
कौन सिक्‍त करे.. आत्‍मा की गंगा से इसको
कंपकंपा रहा प्रेम... तप रही है देह तभी..
फिर कैसे हो सृष्‍टि का प्रेममयी आराधन
झांके कौन देह के भीतर.. पाने को मर्म स्‍पंदन

- अलकनंदा सिंह

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