Tuesday 16 April 2013

ईटों की दराजें....

courtsey : Google
कोई काल कोठरी तो नहीं
वो दीवारें थीं मेरे घर की,
जिस पर छपे हुये थे पंजे
प्रेम और वियोग...के
स्‍वागत और विदाई... के
जन्‍म और बधाई... के

ये तो उन्‍हीं ईटों की दराजें हैं जिनमें
रहता था अम्‍मा के घर का राशन
तीन पुश्‍तों के मुकद्दमे की रद्दी
समाये हुये घर का इतिहास

पर आज सभी अपनों के-
संबंधों की चटकन से
चटक रही हैं यही ईटें और दीवारें,
क्‍योंकि....

उस खून के रंग के बीच
गर्व और अहंकार के बीच
अपने और पराये के बीच
छल और आडंबर के बीच
घर और चारदीवारी के बीच

दीवारों की रंगत
काल कोठरी से भी भयानक
नज़र आती है अब

                                          -अलकनंदा सिंह

रूठो ना सखा यूं...

चित्र : साभार-गूगल
रूठने की तरकीबें तुम्‍हें
खूब आती हैं सखा...
नहीं रखो तुम मान मेरा
ये कैसे मैं होने दूंगी

मत भूलो तुम, मेरे होते
रूठकर बैठ नहीं सकते
यूं ही तुम्‍हारी कोशिशें
परवान नहीं चढ़ने दूंगी

अम्‍बर की हर शै से जाकर
चुन कर लाऊंगी वो पल
मेरे और तुम्‍हारे धागे की
गिरह कभी नहीं बनने दूंगी

तुम्‍हारे सभी उलाहने मैंने
टांक दिए हैं उस तकिये में
जिस पर सपने बोये थे तुमने
हर सपने का जाल बनाकर
नये वादे मैं वहीं टांक दूंगी

चुप क्‍यों हो, बोलो हे सखा...
रूठने की हर कला की
अपनी सीमायें होती हैं
जाने भी दो,मत नापो इनको
तुम्‍हारी एक न चलने दूंगी

जब भी आओ मेरे पास तुम
भुलाकर आना अपना मान
छोड़ आना गुस्‍से के हिज्‍जे
तजकर आना अपना ज्ञान
वरना गोपी बनकर मैं भी
मान तुम्‍हारा चूर कर दूंगी
      -अलकनंदा सिंह

Wednesday 10 April 2013

क्‍या तुम्‍हीं हो ये...हे सखा....

तंद्रारहित  रात्रि   के   अंधकार में

मुझे  बुला  रहा  है  कोई एक-
तेजपूर्ण  शून्‍य सा
रश्‍मियों को बिखेरता
धमनियों  में रेंगता सा
बढ़ रहा है  मेरी  ओर,
मानो मन: अभिसार के लिए,


पलक मूंद  मैं उसे-देख रही थी
उसकी ऊंची तान मुरली की -
 त्रियक हुआ जाता था शरीर
 वो देख रहा था मेरी आंखें
अपनी त्रियक मुस्‍कान के संग

 मैं ठिठकी - बोली ,
कुछ पल रुको ! हे रश्‍मिवाहक प्रेम के
क्‍यों क्षण क्षण में भ्रमित कर रहे हो
मुझे याचना नहीं करनी
उसकी ,जो तुम दे ही चुके हो

अब ये जान लो
ये तुम्‍हारी रश्‍मियां मैं सब
सोख लूंगी
सुनते ही घुलने लगा वो प्रकाशपुंज
सारी रश्‍मियां विलुप्‍त
होती जा रही थीं मेरे भीतर
             
                             तो क्‍या हे सखा ....हे कृष्‍ण ...ये तुम्‍हीं हो...
                              मेरा प्रेम बनकर मुझमें ही समाये हो
                              मैं पा रही हूं तुम्‍हारा वो ओझल स्‍पर्श
                              अशून्‍य से शून्‍य की ओर जाते हुये
                             तुम्‍हारे लौकिक सखाभाव ने
                             मुझे तृप्‍त कर दिया है
                              .....हे सखा....हे कृष्‍ण...।
                                                                        - अलकनंदा सिंह

                   

Tuesday 9 April 2013

ख्‍वाब और रूह का वज़ूद

कोई आवाज सुनाई देती है मेरे आइने को
दिख रहा जो अक्‍स मुझसे वो बेगाना क्‍यों है,

रूह से निकल बर्फ होते जा रहे वज़ूद का
उसकी आवाज़ से रिश्‍ता पुराना क्‍यों है,
थामी है उसकी याद किसी हिज़्र की तरह
हथेलियों में वक्‍त इतना सहमा सा क्‍यों है,

थरथराते कदम और उखड़ते हुये लम्‍हों ने
शिकवों के गठ्ठर को कांधे पै ढोया क्‍यों है,
थरथराती हुई सांस और धड़कन के सफ़र को
मेरी मुट्ठी में बंद करके वो रोया क्‍यों है,

गिरते एतबार को थामने की कोशिश्‍ा में
किरणों के रेले से वो मुझे बहलाता क्‍यों है,
अब मैंने बुन लिया ऐसे ख्‍वाब का मंज़र
बीती तमाम उम्र का वो वास्‍ता देता क्‍यों है
                        -अलकनंदा सिंह

Sunday 7 April 2013

बार का संस्‍कार

प्रश्‍नों में घिरी है आस्‍था  आज
क्‍योंकि-
इस सूचनाई जमात में,
सभ्‍यता के सूरज को -
हथेली में छुपाकर,
ज्ञान को बाजार में
बदलने चली है
हमारी आपकी नई पीढ़ी ।

इसीलिए अपनों की
संवेदना को 'बार' में
और 'बार' को,
संस्‍कार में
घोलने चली है
हमारी आपकी नई पीढ़ी।
-अलकनंदा सिंह

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